गुजरात में एक व्यापारी रहते थे, जिनका नाम सुखीराम था| सुखीराम सुबह सुबह उठकर स्नान करने के बाद भगवान का भजन करते थे|
फिर ठीक समय पर दुकान खोल कर बैठ जाते थे| उनकी ईमानदारी के चर्चे चारों तरफ थे| जब उनके बच्चे जवान हो गए तो उन्होंने पिताजी का काम संभाल लिया| सुखीराम मन ही मन सोचने लगे कि अब 60 वर्ष की आयु हो गई है|
ऐसे में दुकान का लालच छोड़कर क्यों नहीं पूरा समय भगवान के भजन और जन सेवा में लगाया जाए| लेकिन उनका मन कहता, अभी तो नाती पोतों को पढ़ाना लिखाना है| उनके विवाह करने हैं| इन सब से निपट जाने के बाद ही दुकान छोड़ने के बारे में सोचना ठीक रहेगा|
इसी उधेड़बुन में वह एक दिन जब सुबह सुबह टहलने जा रहे थे, सड़क पर एक सफाई करने वाली महिला, झाड़ू लगा रही थी| सुखी राम जी को भी सड़क पर चलते हुए देखकर महिला ने कहा, सेठ जी आप एक तरफ हो जाइए| बीच में रहेंगे तो आपके ऊपर धूल पड़ जाएगी| एक तरफ हो जाएंगे तो धूल से बचे रहेंगे|
महिला के इन शब्दों ने सेठजी की आंखें खोल दी| उन्हें भी महसूस होने लगा कि दो नावों में सवार होने वाले का कभी कल्याण नहीं होता है|
उन्होंने तुरंत दुकान की चाबी अपने बेटों को सौंपते हुए कहा:- मैंने इतने साल कमाने में बिता दिए हैं अब शेष जीवन कमाए हुए धन से लोगों की सेवा करना चाहता हूं और भगवान का भजन करना चाहता हूं|
यह सुनकर उनके बेटे को बुरा तो लगा, लेकिन परिवारजनों ने सुखीराम को सभी दायित्व से मुक्त कर दिया| सुखीराम भक्ति और सेवा में डूब चुके थे| कुछ ही समय में सुखीराम को लोग भगत सुखीराम के नाम से जानने लगे|
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